aaj ka hukamnama
(अंग 601 – गुरु ग्रंथ साहिब जी)
(गुरू अमरदास जी / राग सोरठि / -)
सोरठि महला ३ ॥
सो सिखु सखा बंधपु है भाई जि गुर के भाणे विचि आवै ॥ आपणै भाणै जो चलै भाई विछुड़ि चोटा खावै ॥ बिनु सतिगुर सुखु कदे न पावै भाई फिरि फिरि पछोतावै ॥१॥
हरि के दास* सुहेले भाई ॥ जनम जनम के किलबिख दुख काटे आपे मेलि मिलाई ॥ रहाउ ॥
इहु कुट्मबु सभु जीअ के बंधन भाई भरमि भुला सैंसारा ॥ बिनु गुर बंधन टूटहि नाही गुरमुखि मोख दुआरा ॥ करम करहि गुर सबदु न पछाणहि मरि जनमहि वारो वारा ॥२॥
हउ मेरा जगु पलचि रहिआ भाई कोइ न किस ही केरा ॥ गुरमुखि महलु पाइनि गुण गावनि निज घरि होइ बसेरा ॥ ऐथै बूझै सु आपु पछाणै हरि प्रभु है तिसु केरा ॥३॥
सतिगुरू सदा दइआलु है भाई विणु भागा किआ पाईऐ ॥ एक नदरि करि वेखै सभ ऊपरि जेहा भाउ तेहा फलु पाईऐ ॥ नानक नामु वसै मन अंतरि विचहु आपु गवाईऐ ॥४॥६॥(अर्थ)
(अंग 601 – गुरु ग्रंथ साहिब जी)
(गुरू अमरदास जी / राग सोरठि / -)
सोरठि महला ३ ॥
हे भाई ! वही सच्चा सिक्ख मेरा मित्र एवं संबंधी है, जो गुरु की रज़ा में आचरण करता है। जो अपनी इच्छानुसार आचरण करता है, वह भगवान से विछुड़ कर चोटें खाता रहता है। हे भाई ! सतगुरु के बिना उसे कदापि सुख नहीं मिलता और वह बार-बार पश्चाताप में जलता रहता है॥ १॥
हे भाई ! भगवान के भक्त हमेशा सुखी एवं प्रसन्न हैं। वह उनके जन्म-जन्मान्तरों के पाप एवं कष्ट मिटा देता है और उन्हें स्वयं ही अपने साथ मिला लेता है॥ रहाउ॥
हे भाई! यह सभी कुटुंब इत्यादि तो जीव हेतु बन्धन ही हैं और सारी दुनिया भ्रम में ही भटक रही है। गुरु के बिना बन्धन नष्ट नहीं होते और गुरु के माध्यम से मोक्ष का द्वार मिल जाता है। जो प्राणी सांसारिक कर्म करता है और गुरु के शब्द की पहचान नहीं करता, वह बार-बार दुनिया में मरता और जन्मता ही रहता है॥ २॥
हे भाई ! यह दुनिया तो अहंत्व एवं आत्माभिमान में ही उलझी हुई है परन्तु कोई भी किसी का सखा नहीं। गुरुमुख पुरुष सत्य के महल को प्राप्त कर लेते हैं, सत्य का ही गुणगान करते हैं और अपने आत्मस्वरूप (भगवान के चरणों) में बसेरा प्राप्त कर लेते हैं। जो व्यक्ति इहलोक में स्वयं को समझ जाता है, वह अपने आत्मस्वरूप को पहचान लेता है और हरि-प्रभु उसका बन जाता है॥ ३ ॥
हे भाई ! सतिगुरु तो हमेशा ही दयालु है परन्तु तकदीर के बिना प्राणी क्या प्राप्त कर सकता है ? सतिगुरु सभी पर एक समान कृपा-दृष्टि से ही देखता है परन्तु जैसी प्राणी की प्रेम-भावना होती है, उसे वैसा ही फल प्राप्त होता है। हे नानक ! यदि अन्तर्मन में से आत्माभिमान को दूर कर दिया जाए तो मन के अन्दर प्रभु-नाम का निवास हो जाता है॥ ४॥ ६॥
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