श्री दरबार साहिब से आज का हुकमनामा

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Today Hukamnama

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(अंग 648 – गुरु ग्रंथ साहिब जी)
(गुरू अमरदास जी / राग सोरठि / सोरठि की वार (म: ४))
सलोकु मः ३ ॥
नानक नावहु घुथिआ हलतु पलतु सभु जाइ ॥ जपु तपु संजमु सभु हिरि लइआ मुठी दूजै भाइ ॥ जम दरि बधे मारीअहि* बहुती मिलै सजाइ ॥१॥
मः ३ ॥
संता नालि वैरु कमावदे दुसटा नालि मोहु पिआरु ॥ अगै पिछै सुखु नही मरि जमहि वारो वार ॥ त्रिसना कदे न बुझई दुबिधा होइ खुआरु ॥ मुह काले तिना निंदका तितु सचै दरबारि ॥ नानक नाम विहूणिआ ना उरवारि न पारि ॥२॥
(गुरू रामदास जी / राग सोरठि / सोरठि की वार (म: ४))
पउड़ी ॥
जो हरि नामु धिआइदे से हरि हरि नामि रते मन माही ॥ जिना मनि चिति इकु अराधिआ तिना इकस बिनु दूजा को नाही ॥ सेई पुरख हरि सेवदे जिन धुरि मसतकि लेखु लिखाही ॥ हरि के गुण नित गावदे हरि गुण गाइ गुणी समझाही ॥ वडिआई वडी गुरमुखा गुर पूरै हरि नामि समाही ॥१७॥(अर्थ)
(अंग 648 – गुरु ग्रंथ साहिब जी)
(गुरू अमरदास जी / राग सोरठि / सोरठि की वार (म: ४))
श्लोक महला ३॥
हे नानक ! नाम को विस्मृत करने से मनुष्य का लोक एवं परलोक सब व्यर्थ चला जाता है। उसकी पूजा, तपस्या एवं संयम सभी छीन लिया गया है और उसे द्वैतभाव ने ठग लिया है। फिर यम के द्वार पर उसे बांधकर बहुत पीटा जाता है और उसे बहुत सजा मिलती है ॥१॥
महला ३॥
निन्दक व्यक्ति संतों के साथ बड़ा बैर रखते हैं लेकिन दुष्टों के साथ उनका बड़ा मोह एवं प्यार होता है। ऐसे व्यक्तियों को लोक एवं परलोक में कदापि सुख नहीं मिलता, जिसके कारण वे पीड़ित होकर पुनः पुनः जन्मते एवं मरते रहते हैं। उनकी तृष्णा कदापि नहीं बुझती और दुविधा में पड़कर ख्वार होते हैं। उन निन्दकों के सत्य के दरबार में मुँह काले कर दिए जाते हैं। हे नानक ! हरि-नाम से विहीन व्यक्ति को लोक-परलोक कहीं भी शरण नहीं मिलती ॥२॥
(गुरू रामदास जी / राग सोरठि / सोरठि की वार (म: ४))
पउड़ी॥
जो व्यक्ति हरि-नाम का ध्यान करते हैं, वे अपने हृदय में भी हरि-नाम में मग्न रहते हैं। जो अपने मन एवं चित में एक ईश्वर की ही आराधना करते हैं, वे एक प्रभु के सिवाय किसी दूसरे को नहीं जानते। वही पुरुष भगवान की उपासना करते हैं, जिनके मस्तक पर प्रारम्भ से ही ऐसा भाग्य लिखा हुआ है। वे तो नित्य ही भगवान की महिमा गाते रहते हैं और गुणवान भगवान की महिमा गायन करके अपने मन को सीख देते हैं। गुरुमुखों की बड़ी बड़ाई है कि वे पूर्ण गुरु के द्वारा हरि-नाम में ही लीन रहते हैंil १७ ॥

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