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हुक्मनामा श्री दरबार साहिब (15 फ़रवरी 2024)

aaj ka hukamnama

(अंग 554 – गुरु ग्रंथ साहिब जी)
(गुरू अमरदास जी / राग बिहागड़ा / बिहागड़े की वार (म: ४))
सलोकु मः ३ ॥
नानक बिनु सतिगुर भेटे जगु अंधु है अंधे करम कमाइ ॥ सबदै सिउ चितु न लावई जितु सुखु वसै मनि आइ ॥ तामसि लगा सदा फिरै अहिनिसि जलतु बिहाइ ॥ जो तिसु भावै सो थीऐ कहणा किछू न जाइ ॥१॥
मः ३ ॥
सतिगुरू फुरमाइआ कारी एह करेहु ॥ गुरू दुआरै होइ कै साहिबु समालेहु ॥ साहिबु सदा हजूरि है भरमै के छउड़ कटि कै अंतरि जोति धरेहु ॥ हरि का नामु अम्रितु है दारू एहु लाएहु ॥ सतिगुर का भाणा चिति रखहु संजमु सचा नेहु ॥ नानक ऐथै सुखै अंदरि रखसी अगै हरि सिउ केल करेहु ॥२॥
(गुरू रामदास जी / राग बिहागड़ा / बिहागड़े की वार (म: ४))
पउड़ी ॥
आपे भार अठारह बणसपति आपे ही फल लाए ॥ आपे माली आपि सभु सिंचै आपे ही मुहि पाए ॥ आपे करता आपे भुगता आपे देइ दिवाए ॥ आपे साहिबु आपे है राखा आपे रहिआ समाए ॥ जनु नानक वडिआई आखै हरि करते की जिस नो तिलु न तमाए ॥१५॥(अर्थ)
(अंग 554 – गुरु ग्रंथ साहिब जी)
(गुरू अमरदास जी / राग बिहागड़ा / बिहागड़े की वार (म: ४))
श्लोक महला ३ ॥
हे नानक ! सच्चे गुरु से भेंट के बिना यह जगत अन्धा अर्थात् ज्ञानहीन है और अंधे कर्म (दुष्कर्म) कर रहा है। यह जगत (उस) शब्द में चित नहीं लगाता, जिससे सुख मन में आकर निवास करता है। यह जगत हमेशा ही क्रोध में लीन होकर भटकता है और इसके दिन-रात क्रोध में जलते हुए बीत जाते हैं। जो कुछ भी परमात्मा को अच्छा लगता है, वही होता है और इस संदर्भ में कुछ भी कहा नहीं जा सकता ॥ १॥
महला ३।
सच्चे गुरु ने मुझे यह कार्य करने का फुरमान किया है कि गुरु के द्वार पर मालिक का नाम याद करते रहो। मालिक हमेशा करीब है अतः भृम के पर्दे को फाड़कर अंतर में उसकी ज्योति का ध्यान धारण करो। हरि का नाम अमृत है, यह औषधि द्वदय में धारण करो। सच्चे गुरु की रज़ा अपने चित्त में धारण करो और सच्चे प्रेम को अपना संयम बनाओ। हे नानक ! इहलोक में सतगुरु तुझे सुखपूर्वक रखेगा और परलोक में परमेश्वर के साथ आनंद करो ॥ २॥
(गुरू रामदास जी / राग बिहागड़ा / बिहागड़े की वार (म: ४))
पउड़ी॥
परमात्मा आप ही अठारह भार वनस्पति है और आप ही इसे फल लगाता है। वह आप ही सृष्टि रूपी बाग का बागवां है, आप ही सभी पौधों को सींचता है और आप ही उनके फल को मुँह में डालता है। परमात्मा आप ही निर्माता है और आप ही भोक्ता है, यह आप ही देता और दूसरो को दिलवाता है। वह आप ही मालिक हैं, आप ही रक्षक है और आप ही अपनी सृष्टि रचना समाया हुआ है। नानक तो उस जगत के रचयिता परमात्मा का ही स्तुतिगान कर रहा है, जिसे अपनी स्तुति करवाने में तिल मात्र भी लोभ नहीं ॥ १५॥

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