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हुक्मनामा श्री दरबार साहिब 1फ़रवरी 2024

Aaj Ka Hukamanama

सोरठि मः १ चउतुके ॥
माइ बाप को बेटा नीका ससुरै चतुरु जवाई ॥ बाल कंनिआ कौ बापु पिआरा भाई कौ अति भाई ॥ हुकमु भइआ बाहरु घरु छोडिआ खिन महि भई पराई ॥ नामु दानु इसनानु न मनमुखि तितु तनि धूड़ि धुमाई ॥१॥
मनु मानिआ नामु सखाई ॥ पाइ परउ गुर कै बलिहारै जिनि साची बूझ बुझाई ॥ रहाउ ॥
जग सिउ झूठ प्रीति मनु बेधिआ जन सिउ वादु रचाई ॥ माइआ मगनु अहिनिसि मगु जोहै नामु न लेवै मरै बिखु खाई ॥ गंधण वैणि रता हितकारी सबदै सुरति न आई ॥ रंगि न राता रसि नही बेधिआ मनमुखि पति गवाई ॥२॥
साध सभा महि सहजु न चाखिआ जिहबा रसु नही राई ॥ मनु तनु धनु अपुना करि जानिआ दर की खबरि न पाई ॥ अखी मीटि चलिआ अंधिआरा घरु दरु दिसै न भाई ॥ जम दरि बाधा ठउर न पावै अपुना कीआ कमाई ॥३॥
नदरि करे ता अखी वेखा कहणा कथनु न जाई ॥ कंनी सुणि सुणि सबदि सलाही अम्रितु रिदै वसाई ॥ निरभउ निरंकारु निरवैरु पूरन जोति समाई ॥ नानक गुर विणु भरमु न भागै सचि नामि वडिआई ॥४॥३॥

सोरठि मः १ चउतुके ॥
माता-पिता को अपना बेटा एवं ससुर को अपना चतुर दामाद बहुत प्रिय है। बाल कन्या को अपना पिता बहुत प्यारा है तथा भाई को अपना भाई अच्छा लगता है। लेकिन परमात्मा का हुक्म होने पर (मृत्यु का निमंत्रण आने पर) प्राणी ने घर-बाहर हरेक को त्याग दिया और एक क्षण में ही सब कुछ पराया हो गया है। मनमुख मनुष्य ने भगवान के नाम का सिमरन नहीं किया, न ही दान-पुण्य किया है, न ही स्नान को महत्व दिया है, जिसके फलस्वरूप उसका शरीर धूल में ही फिरता रहता है अर्थात् नष्ट ही होता रहता है॥ १ ॥
मेरा मन भगवान के नाम को सहायक बनाकर सुखी हो गया है। मैं उस गुरु के चरण छूकर उन पर कुर्बान जाता हूँ, जिसने मुझे सच्ची सूझ-सुमति दी है॥ रहाउ ॥
मनमुख मनुष्य दुनिया के झूठे प्रेम से बंधा हुआ है और भक्तजनों के साथ वाद-विवाद में क्रियाशील रहता है। माया में मग्न हुआ वह दिन-रात्रि केवल माया का मार्ग ही देखता रहता है तथा भगवान का नाम नहीं लेता और माया रूपी विष खाकर प्राण त्याग देता है। वह अभद्र बातों में ही मस्त रहता है और हितकारी शब्द की ओर ध्यान नहीं लगाता। न ही वह भगवान के रंग में रंगा है, न ही वह नाम के रस से बिंधा गया है। इस तरह मनमुख अपनी इज्जत गंवा देता है। ॥ २ ॥
साधुओं की सभा में वह सहजावस्था को नहीं चखता और उसकी जिव्हा में कण-मात्र भी मधुरता नहीं। वह मन, तन एवं धन को अपना मानकर जानता है लेकिन भगवान के दरबार का उसे कोई ज्ञान नहीं। हे भाई! ऐसा मनुष्य अपनी आँखें बन्द करके अज्ञानता के अन्धेरे में चल देता है और उसे अपना घर द्वार दिखाई नहीं देता। मृत्यु के द्वार पर उस बंधे हुए मनुष्य को कोई ठिकाना नहीं मिलता और वह अपने किए हुए कर्मो का फल भोगता है।३॥
यद्यपि भगवान अपनी कृपा-दृष्टि करे तो ही मैं अपनी आँखों से उसके दर्शन कर सकता हूँ, जिसका कथन एवं वर्णन नहीं किया जा सकता। अपने कानों से मैं भगवान की महिमा सुन-सुनकर शब्द द्वारा उसकी स्तुति करता हूँ और उसका अमृत नाम मैंने अपने हृदय में बसाया है। निर्भीक, निराकार, निर्वेर प्रभु की पूर्ण ज्योति सारे जगत में समाई हुई है। हे नानक ! गुरु के बिना मन का भ्रम दूर नहीं होता और सत्य-नाम से ही प्रशंसा प्राप्त होती है।॥४॥३॥

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