Friday, September 20, 2024
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श्री दरबार साहिब अमृतसर से आज का हुकमनामा

Today Hukamnama

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मिठ बोलड़ा जी हरि सजणु सुआमी मोरा ॥ हउ समलि थकी जी ओहु कदे न बोलै कउरा ॥ कउड़ा बोलि न जानै पूरन भगवानै अउगणु को न चितारे ॥ पतित पावनु हरि बिरदु सदाए इकु तिलु नही भंनै घाले ॥ घट घट वासी सरब निवासी नेरै ही ते नेरा ॥ नानक दासु सदा सरणागति हरि अम्रित सजणु मेरा ॥१॥
हउ बिसमु भई जी हरि दरसनु देखि अपारा ॥ मेरा सुंदरु सुआमी जी हउ चरन कमल पग छारा ॥ प्रभ पेखत जीवा ठंढी थीवा तिसु जेवडु अवरु न कोई ॥ आदि अंति मधि प्रभु रविआ जलि थलि महीअलि सोई ॥ चरन कमल जपि सागरु तरिआ भवजल उतरे पारा ॥ नानक सरणि पूरन परमेसुर तेरा अंतु न पारावारा ॥२॥
हउ निमख न छोडा जी हरि प्रीतम प्रान अधारो ॥ गुरि सतिगुर कहिआ जी साचा अगम बीचारो ॥ मिलि साधू दीना ता नामु लीना जनम मरण दुख नाठे ॥ सहज सूख* आनंद घनेरे हउमै बिनठी गाठे ॥ सभ कै मधि सभ हू ते बाहरि राग दोख ते निआरो ॥ नानक दास गोबिंद सरणाई हरि प्रीतमु मनहि सधारो ॥३॥
मै खोजत खोजत जी हरि निहचलु सु घरु पाइआ ॥ सभि अध्रुव डिठे जीउ ता चरन कमल चितु लाइआ ॥ प्रभु अबिनासी हउ तिस की दासी मरै न आवै जाए ॥ धरम अरथ काम सभि पूरन मनि चिंदी इछ पुजाए ॥ स्रुति सिम्रिति गुन गावहि करते सिध साधिक मुनि जन धिआइआ ॥ नानक सरनि क्रिपा निधि सुआमी वडभागी हरि हरि गाइआ ॥४॥१॥११॥(अर्थ)


ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मेरा स्वामी सज्जन हरि बहुत मीठा बोलने वाला है। मैं याद कर-करके थक चुकी हूँ, वह कभी भी कड़वा नहीं बोलता। वह पूर्ण भगवान् कड़वा बोलना जानता ही नहीं और मेरा कोई अवगुण याद ही नहीं करता। पतितों को पावन करना उसका विरद् कहलाता है, वह किसी की साधना को तिल भर भी नहीं भूलता। वह घट-घट में व्याप्त है, सर्वव्यापक है और हमारे बिल्कुल निकट ही रहता है। दास नानक सदैव उसकी शरण में है, मेरा सज्जन हरि अमृत समान मीठा है॥ १॥
हे भाई ! हरि का दर्शन देखकर मैं आश्चर्यचकित हो गई हूँ। मेरा स्वामी बड़ा सुन्दर है और मैं उसके चरणों की धूल मात्र हूँ। मैं प्रभु को देखकर ही जीवित रहती हूँ व बड़ी शांति मिलती है और उस जैसा महान् अन्य कोई नहीं। जगत् के आरम्भ, मध्य, एवं अन्त में प्रभु ही विद्यमान है, वह समुद्र,जमींन एवं आसमान में व्यापक है। मैं उसके चरण-कमल को जपकर संसार-सागर से तर गया हूँ और भवसागर से पार हो गया हूँ। नानक वंदना करता है केि हे पूर्ण परमेश्वर ! में तेरी शरण में आया हूँ, तेरा कोई आर-पार नहीं ॥ २॥
प्रियतम हरि मेरे प्राणों का आधार है और मैं उसका नाम, एक क्षण भर के लिए भी नहीं छोड़ता। गुरु ने मुझे उपदेश दिया है कि उस सच्चे प्रभु का ही चिंतन करो। मैंने साधु को मिलकर अपना तन-मन सौंपकर उन से नाम लिया है, अब मेरे जन्म-मरण के दुख भाग गए हैं। मेरे मन में सहज सुख एवं बेशुमार आनंद पैदा हो गया है और मेरी अहंत्व की गांठ नाश हो गई है। भगवान सब जीवों में बसता है और सबसे बाहर भी मौजूद रहता है, वह राग-द्वेष से नेिर्लिप्त है। दास नानक गोविंद की शरण में है और प्यारा प्रभु ही उसके मन का एकमात्र सहारा है॥ ३॥
खोजते-खोजते मैंने हरि का निश्चल घर पा लिया है। दुनिया में मुझे जब सब नाशवान दिखाई दिए तो मैंने प्रभु के चरण-कमल से ही चित्त लगाया। मैं अविनाशी प्रभु की दासी हूँ, जो जन्म-मरण से मुक्त है। धर्म, अर्थ एवं काम ये सारे पदार्थ उसमें भरपूर हैं और वह मनोकामनाएँ पूरी कर देता है। वेद एवं स्मृतियाँ उस कर्तार का ही गुणगान करती हैं तथा सिद्ध, साधक एवं मुनिजनों ने उसका ही मनन किया है। हे नानक ! मैं कृपानिधि स्वामी की ही शरण में हूँ और बड़ा भाग्यशाली हूँ जो पंरमात्मा का यशगान किया है॥ ४॥ १॥ ११॥

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