Today Hukamnama
सलोक मः ३ ॥
जगतु जलंदा रखि लै आपणी किरपा धारि ॥ जितु दुआरै उबरै तितै लैहु उबारि ॥ सतिगुरि सुखु वेखालिआ सचा सबदु बीचारि ॥ नानक अवरु न सुझई हरि बिनु बखसणहारु ॥१॥
मः ३ ॥
हउमै माइआ मोहणी दूजै लगै जाइ ॥ ना इह मारी न मरै ना इह हटि विकाइ ॥ गुर कै सबदि परजालीऐ ता इह विचहु जाइ ॥ तनु मनु होवै उजला नामु वसै मनि आइ ॥ नानक माइआ का मारणु सबदु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥२॥
(गुरू रामदास जी / राग बिलावलु / बिलावल की वार (म: ४))
पउड़ी ॥
सतिगुर की वडिआई सतिगुरि दिती धुरहु हुकमु बुझि नीसाणु ॥ पुती भातीई जावाई सकी अगहु पिछहु टोलि डिठा लाहिओनु सभना का अभिमानु ॥ जिथै को वेखै तिथै मेरा सतिगुरू हरि बखसिओसु सभु जहानु ॥ जि सतिगुर नो मिलि मंने सु हलति पलति सिझै जि वेमुखु होवै सु फिरै भरिसट थानु ॥ जन नानक कै वलि होआ मेरा सुआमी हरि सजण पुरखु सुजानु ॥ पउदी भिति देखि कै सभि आइ पए सतिगुर की पैरी लाहिओनु सभना किअहु मनहु गुमानु ॥१०॥
(अर्थ)
(अंग 853 – गुरु ग्रंथ साहिब जी)
(गुरू अमरदास जी / राग बिलावलु / बिलावल की वार (म: ४))
श्लोक महला ३॥
हे परमात्मा ! यह जगत् तृष्णाग्नि में जल रहा है, अपनी कृपा करके इसकी रक्षा करो। जिस किसी तरीके से भी यह बच सकता है, इसे बचा लो। सच्चे शब्द के चिंतन द्वारा सतगुरु ने मुझे सुख दिखा दिया है। हे नानक ! ईश्वर के अतिरिक्त मुझे अन्य कोई भी क्षमावान् नजर नहीं आता ॥ १॥
महला ३॥
अहंत्व रूपी माया दुनिया को मोह लेने वाली है, इसी कारण जीव द्वैतभाव में लगता है। यह न ही मारी जा सकती है और न ही इसे किसी दुकान पर बेचा जा सकता है। लेकिन गुरु के शब्द द्वारा भलीभांति जला दिया जाए तो ही यह मन में से दूर होती है। अहंत्व के दूर होने से तन-मन उज्ज्वल हो जाता है, जिससे मन में नाम का निवास हो जाता है। हे नानक ! शब्द ही माया को नाश करने वाला है, परन्तु यह गुरु द्वारा ही प्राप्त होता है॥ २ ॥
(गुरू रामदास जी / राग बिलावलु / बिलावल की वार (म: ४))
पउड़ी॥
परमात्मा से मिले हुक्म को समझ कर गुरु अंगद देव जी ने (गुरु) अमरदास जी को नाम रूपी परवाना देकर सतगुरु बनने की बड़ाई प्रदान की। गुरु अंगद देव जी ने अपने पुत्रों, भतीजों, दामादों एवं अन्य संबंधियों को भलीभांति परख कर देख लिया था और सभी का अभिमान उतार दिया था। जिधर भी कोई देखता था, वहाँ ही मेरा सतगुरु होता था, परमात्मा ने सारे जहान पर ही कृपा कर दी थी। जो भी निष्ठापूर्वक गुरु को मिलता है, उसका लोक-परलोक संवर जाता है, जो गुरु से विमुख हो जाता है, वह भ्रष्ट स्थान पर फिरता रहता है। हे नानक ! मेरा स्वामी हरि (गुरु अमरदास के) पक्ष में हो गया और वह चतुर प्रभु ही सज्जन है। गुरु के द्वार पर अटूट लंगर मिलता देखकर सारे सेवक गुरु (अमरदास) के चरणों में आ पड़े हैं और गुरु ने सबके मन का गुमान दूर कर दिया है॥ १०॥
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