Today Hukamnama
सलोकु मः ३ ॥
वाहु वाहु आपि अखाइदा गुर सबदी सचु सोइ ॥ वाहु वाहु सिफति सलाह है गुरमुखि बूझै कोइ ॥ वाहु वाहु बाणी सचु है सचि मिलावा होइ ॥ नानक वाहु वाहु करतिआ प्रभु पाइआ करमि परापति होइ ॥१॥
मः ३ ॥
वाहु वाहु करती रसना सबदि सुहाई ॥ पूरै सबदि प्रभु मिलिआ आई ॥ वडभागीआ वाहु वाहु मुहहु कढाई ॥ वाहु वाहु करहि सेई जन सोहणे तिन्ह कउ परजा पूजण आई ॥ वाहु वाहु करमि परापति होवै नानक दरि सचै सोभा पाई ॥२॥
पउड़ी ॥
बजर कपाट काइआ गड़्ह भीतरि कूड़ु कुसतु अभिमानी ॥ भरमि भूले नदरि न आवनी मनमुख अंध अगिआनी ॥ उपाइ कितै न लभनी करि भेख थके भेखवानी ॥ गुर सबदी खोलाईअन्हि हरि नामु जपानी ॥ हरि जीउ अम्रित बिरखु है जिन पीआ ते त्रिपतानी ॥१४॥
(अर्थ)
श्लोक महला ३॥
वह सत्यस्वरूप परमात्मा गुरु के शब्द द्वारा अपनी ‘वाह-वाह’ (महिमा) करवाता है। कोई विरला गुरुमुख ही इस तथ्य को समझता है कि ‘वाह-वाह’ प्रभु की उस्तति-महिमा है। यह सच्ची वाणी भी ‘वाह-वाह’ है, जिससे मनुष्य सत्य (प्रभु) को मिल जाता है। हे नानक ! वाह-वाह (स्तुतिगान) करते हुए ही परमात्मा के करम (कृपा) से ही उसको पाया जा सकता है ॥ १ ॥
महला ३॥
वाह-वाह (गुणानुवाद) करती हुई रसना गुरु-शब्द से सुन्दर लगती है। पूर्ण शब्द-गुरु द्वारा प्रभु आकर मनुष्य को मिल जाता है। भाग्यवान ही अपने मुख से भगवान की वाह-वाह (गुणगान) करते हैं। वे सेवक सुन्दर हैं, जो परमेश्वर की वाह-वाह (स्तुतिगान) करते हैं, प्रजा उनकी पूजा करने के लिए आती है। हे नानक ! करम से ही प्रभु की वाह-वाह (उस्तति) प्राप्त होती है और मनुष्य सच्चे द्वार पर शोभा पाता है॥ २॥
पउड़ी॥
काया रूपी दुर्ग के भीतर झूठ, फरेब एवं अभिमान के वज कपाट लगे हुए हैं। भ्रम में भूले हुए अन्धे एवं अज्ञानी स्वेच्छाचारी उनको देखते ही नहीं। वे किसी भी उपाय द्वारा कपाट ढूंढ नहीं पाते। भेषधारी भेष धारण कर-करके थक गए हैं। जो व्यक्ति हरि-नाम जपते हैं, गुरु के शब्द द्वारा उनके कपाट खुल जाते हैं। श्रीहरि अमृत का वृक्ष है, जो इस अमृत का पान करते हैं, वे तृप्त हो जाते हैं।॥ १४॥
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