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धनासरी महला ५ घरु ६ असटपदी
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
जो जो जूनी आइओ तिह तिह उरझाइओ माणस जनमु संजोगि पाइआ ॥ ताकी है ओट साध राखहु दे करि हाथ करि किरपा मेलहु हरि राइआ ॥१॥
अनिक जनम भ्रमि थिति नही पाई ॥ करउ सेवा गुर लागउ चरन गोविंद जी का मारगु देहु जी बताई ॥१॥ रहाउ ॥
अनिक उपाव करउ* माइआ कउ बचिति धरउ मेरी मेरी करत सद ही विहावै ॥ कोई ऐसो रे भेटै संतु मेरी लाहै सगल चिंत ठाकुर सिउ मेरा रंगु लावै ॥२॥
पड़े रे सगल बेद नह चूकै मन भेद इकु खिनु न धीरहि मेरे घर के पंचा ॥ कोई ऐसो रे भगतु जु माइआ ते रहतु इकु अम्रित नामु मेरै रिदै सिंचा ॥३॥
जेते रे तीरथ नाए अह्मबुधि मैलु लाए घर को ठाकुरु इकु तिलु न मानै ॥ कदि पावउ साधसंगु हरि हरि सदा आनंदु गिआन अंजनि मेरा मनु इसनानै ॥४॥
सगल अस्रम कीने मनूआ नह पतीने बिबेकहीन देही धोए ॥ कोई पाईऐ रे पुरखु बिधाता पारब्रहम कै रंगि राता मेरे मन की दुरमति मलु खोए ॥५॥
करम धरम जुगता निमख न हेतु करता गरबि गरबि पड़ै कही न लेखै ॥ जिसु भेटीऐ सफल मूरति करै सदा कीरति गुर परसादि कोऊ नेत्रहु पेखै ॥६॥
मनहठि जो कमावै तिलु न लेखै पावै बगुल जिउ धिआनु लावै माइआ रे धारी ॥ कोई ऐसो रे सुखह दाई प्रभ की कथा सुनाई तिसु भेटे गति होइ हमारी ॥७॥
सुप्रसंन गोपाल राइ काटै रे बंधन माइ गुर कै सबदि मेरा मनु राता ॥ सदा सदा आनंदु भेटिओ निरभै गोबिंदु सुख नानक लाधे हरि चरन पराता ॥८॥
सफल सफल भई सफल जात्रा ॥ आवण जाण रहे मिले साधा ॥१॥ रहाउ दूजा ॥१॥३॥
(अर्थ)
धनासरी महला ५ घरु ६ असटपदी
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
जो भी जीव जिस योनि में आया है, वह उस में ही उलझ गया है; अहोभाग्य से अमूल्य मानव-जन्म प्राप्त हुआ है। हे साधुजनो ! मैंने आपका सहारा ही देखा है, इसलिए अपना हाथ देकर मेरी रक्षा करो तथा कृपा करके विश्व के बादशाह प्रभु से मिला दो॥१॥
मैं तो अनेक जन्मों में भटका हूँ परन्तु मुझे कहीं भी स्थिरता प्राप्त नहीं हुई। अब मैं अपने गुरु के चरणों में लगकर उसकी सेवा करता हूँ। हे गुरुदेव ! मुझे गोविन्द से मिलन का मार्ग बता दीजिए॥१॥ रहाउ॥
मैं माया को अपने हृदय में बसाकर रखता हूँ और इसे प्राप्त करने हेतु अनेक उपाय करता रहता हूँ। हमेशा ही ‘मेरी-मेरी’ करते हुए मेरी तमाम आयु बीतती जा रही है। मेरी अभिलाषा है कि मुझे कोई ऐसा संत मिल जाए, जो मेरी सारी चिन्ता दूर कर दे और ठाकुर जी से मेरा प्यार लगा दे ॥ २ ॥
मैंने सभी वेद पढ़े हैं परन्तु मेरे मन के सन्देह दूर नहीं होते और मेरे शरीर रूपी घर में रहने वाली पॉच ज्ञानेन्द्रियाँ, ऑख, कान, नाक, जिव्हा इत्यादि एक क्षण भर के लिए धैर्य नहीं करते। क्या कोई ऐसा भक्त है, जो मोह-माया से निर्लिप्त हो और वह मेरे हृदय में नामामृत को सींच दे॥ ३॥
मैंने जितने भी तीर्थ किए हैं, इन तीर्थों पर स्नान करने से उतनी अहंकार रूपी मैल मेंने अपने मन को लगा ली है और मेरे हृदय रूपी घर का स्वामी प्रभु एक तिल भर के लिए भी प्रसन्न नहीं होता। मैं ऐसी साधसंगति कब प्राप्त करूँगा जिसमें मैं परमेश्वर का नाम जप कर सदैव ही आनंदित रहूँगा और मेरा मन अपनी ऑखों में ज्ञान रूपी सुरमा डालकर ज्ञान रूपी तीर्थ में स्नान करेगा ॥ ४॥
मैंने ब्रह्मचार्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास इन सभी आश्रमों के धर्म कमाए हैं परन्तु मेरा मन संतुष्ट नहीं होता। मैं ज्ञानहीन स्नान करके अपने शरीर को स्वच्छ करता रहता हूँ। मेरी तो कामना है कि कोई ऐसा महापुरुष मुझे मिल जाए जो विधाता परब्रह्म के प्रेम में मग्न हुआ हो और वह मेरी दुर्मति की मैल दूर कर दे ॥ ५॥
मनुष्य धर्म-कर्मों में ही मग्न रहता है परन्तु वह क्षण भर के लिए भी प्रभु से प्रेम नहीं करता। वह तो घमण्ड एवं अहंकार में ही पड़ा रहता है परन्तु उसका कोई भी धर्म-कर्म किसी काम नहीं आता। जिसे शुभ फल देने वाला सत्य की मूर्ति गुरु मिल जाता है, वह सदा परमात्मा का कीर्ति-गान करता रहता है और गुरु की कृपा से कोई विरला पुरुष ही अपने नेत्रों से भगवान के दर्शन प्राप्त करता है॥ ६॥
जो मनुष्य अपने मन के हठ से अभ्यास करता है, उसकी साधना तिल भर भी स्वीकृत नहीं होती। वह तो मायाधारी बगुले की तरह ही ध्यान लगाकर रखता है। क्या कोई ऐसा सुख देने वाला महापुरुष है, जो मुझे प्रभु की कथा सुनाए और उसे मिलने से मेरी मुक्ति हो जाए॥ ७॥
यदि सृष्टि का पालनहार परमात्मा मुझ पर सुप्रसन्न हो जाए तो मेरे मोह-माया के बन्धन काट दे। मेरा मन गुरु के शब्द द्वारा प्रभु के प्रेम में मग्न रहता है। अपने निर्भय गोविन्द को मिलकर मैं सदैव ही आनंदपूर्वक रहता हूँ। हे नानक ! भगवान के चरणों में पड़कर मैंने सर्व सुख प्राप्त कर लिए हैं।॥ ८॥
अब मेरी जीवन-यात्रा सफल हो गई है और संतों से मिलकर मेरा जन्म-मरण का चक्र समाप्त हो गया है॥ १॥ रहाउ दूसरा ॥ १॥ ३॥
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