Ajj Ka Hukamnama
वडहंसु महला ४ घरु २
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मै मनि वडी आस हरे किउ करि हरि दरसनु पावा ॥ हउ जाइ पुछा अपने सतगुरै गुर पुछि मनु मुगधु समझावा ॥ भूला मनु समझै गुर सबदी हरि हरि सदा धिआए ॥ नानक जिसु नदरि करे मेरा पिआरा सो हरि चरणी चितु लाए ॥१॥
हउ सभि वेस करी पिर कारणि जे हरि प्रभ साचे भावा ॥ सो पिरु पिआरा मै नदरि न देखै हउ किउ करि धीरजु पावा ॥ जिसु कारणि हउ सीगारु सीगारी सो पिरु रता मेरा अवरा ॥ नानक धनु धंनु धंनु सोहागणि जिनि पिरु राविअड़ा सचु सवरा ॥२॥
हउ जाइ पुछा सोहाग सुहागणि तुसी किउ पिरु पाइअड़ा प्रभु मेरा ॥ मै ऊपरि नदरि करी पिरि साचै मै छोडिअड़ा मेरा तेरा ॥ सभु मनु तनु जीउ करहु हरि प्रभ का इतु मारगि भैणे मिलीऐ ॥ आपनड़ा प्रभु नदरि करि देखै नानक जोति जोती रलीऐ ॥३॥
जो हरि प्रभ का मै देइ सनेहा तिसु मनु तनु अपणा देवा ॥ नित पखा फेरी सेव कमावा तिसु आगै पाणी ढोवां ॥ नित नित सेव करी* हरि जन की जो हरि हरि कथा सुणाए ॥ धनु धंनु गुरू गुर सतिगुरु पूरा नानक मनि आस पुजाए ॥४॥
गुरु सजणु मेरा मेलि हरे जितु मिलि हरि नामु धिआवा ॥ गुर सतिगुर पासहु हरि गोसटि पूछां करि सांझी हरि गुण गावां ॥ गुण गावा नित नित सद हरि के मनु जीवै नामु सुणि तेरा ॥ नानक जितु वेला विसरै मेरा सुआमी तितु वेलै मरि जाइ जीउ मेरा ॥५॥
हरि वेखण कउ सभु कोई लोचै सो वेखै जिसु आपि विखाले ॥ जिस नो नदरि करे मेरा पिआरा सो हरि हरि सदा समाले ॥ सो हरि हरि नामु सदा सदा समाले जिसु सतगुरु पूरा मेरा मिलिआ ॥ नानक हरि जन हरि इके होए हरि जपि हरि सेती रलिआ ॥६॥१॥३॥(अर्थ)
(अंग 561 – गुरु ग्रंथ साहिब जी)
(गुरू रामदास जी / राग वडहंसु / -)
वडहंसु महला ४ घरु २
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
मेरे मन में बड़ी आशा है, फिर में कैसे हरि के दर्शन करूँ ? मैं अपने सतिगुरु से जाकर पूछता हूँ और गुरु से पूछकर अपने विमूढ़ मन को समझाता हूँ। यह भूला हुआ मन गुरु के शब्द द्वारा ही समझता है और इस तरह दिन-रात हरि-परमेश्वर का ध्यान करता है। हे नानक ! मेरा प्रियतम जिस पर अपनी कृपा-दृष्टि करता है, वह हरि के सुन्दर चरणों में अपना चित्त लगाता है॥ १॥
अपने प्रियतम-प्रभु के लिए मैं विभिन्न प्रकार के सभी वेष धारण करती हूँ चूंकि जो मैं अपने सत्यस्वरूप हरि-प्रभु को अच्छी लगने लगूं। लेकिन वह प्रियतम प्यारा मेरी तरफ कृपा-दृष्टि से नजर उठाकर भी नहीं देखता तो फिर मैं क्योंकर धैर्य प्राप्त कर सकती हूँ? जिसके कारण मैंने अनेक हार-श्रृंगारों से श्रृंगार किया है, वह मेरा पति-प्रभु दूसरों के प्रेम में लीन रहता है। हे नानक ! वह जीव-स्त्री धन्य-धन्य एवं सौभाग्यवती है, जिसने पति-प्रभु के साथ रमण किया है और इस सत्यस्वरूप सर्वश्रेष्ठ पति को ही बसाया हुआ है॥ २॥
मैं जाकर भाग्यशाली सुहागिन से पूछती हूँ कि आपने कैसे मेरे प्रभु (सुहाग) को प्राप्त किया है। वह कहती है कि मैंने मेरे-तेरे के अन्तर को छोड़ दिया है, इसलिए मेरे सच्चे पति-परमेश्वर ने मुझ पर कृपा-दृष्टि की है। हे मेरी बहन ! अपना मन, तन, प्राण एवं सर्वस्व हरि-प्रभु को अर्पित कर दे, यही उससे मिलन का सुगम मार्ग है। हे नानक ! अपना प्रभु जिस पर कृपा-दृष्टि से देखता है, उसकी ज्योति परम-ज्योति में विलीन हो जाती है॥ ३॥
जो कोई पुण्यात्मा मुझे मेरे हरि-प्रभु का सन्देश देती है, उसे मैं अपना तन-मन अर्पण करती हूँ। मैं नित्य ही उसे पंखा फेरती हूँ, उसकी श्रद्धा से सेवा करती हूँ और उसके समक्ष जल लाती हूँ। जो मुझे हरि की हरि-कथा सुनाता है, उस हरि के सेवक की मैं दिन-रात सर्वदा सेवा करती हूँ। हे नानक ! मेरा पूर्ण गुरु-सतगुरु धन्य-धन्य है, जो मेरे मन की आशा पूरी करता है॥ ४ ॥
हे हरि ! मुझे मेरा सज्जन गुरु मिला दो, जिससे मिलकर मैं हरि-नाम का ध्यान करता रहूँ। मैं गुरु-सतगुरु से हरि की गोष्टि-वार्ता पूंछू और उससे सांझ डालकर हरि का गुणगान करूँ। हे हरि ! मैं नित्य-नित्य सर्वदा ही तेरा गुणगान करता रहूँ और तेरा नाम सुनकर मेरा मन आध्यात्मिक रूप से जीवित है। हे नानक ! जिस समय मुझे मेरा स्वामी प्रभु विस्मृत हो जाता है, उस समय मेरी आत्मा मर जाती है।॥ ५॥
हर कोई हरि-दर्शन की तीव्र लालसा करता है लेकिन हरि उसे ही अपने दर्शन देता है, जिसे वह अपने दर्शन स्वयं प्रदान करता है। मेरा प्रियतम जिस पर कृपा-दृष्टि करता है, वह सर्वदा ही परमेश्वर का सिमरन करता है। जिसे मेरा पूर्ण सतगुरु मिल जाता है, वह सर्वदा ही हरि-नाम की आराधना करता रहता है। हे नानक ! हरि का सेवक एवं हरि एक ही रूप हो गए हैं।चूंकि हरि का जाप करने से हरि-सेवक भी हरि में ही समा गया है॥ ६ ॥ १॥ ३ ॥
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