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श्री दरबार साहिब अमृतसर से आज का हुकमनामा

Today Hukamnama

सलोक मः ३ ॥
त्रिसना दाधी जलि मुई जलि जलि करे पुकार ॥ सतिगुर सीतल जे मिलै फिरि जलै न दूजी वार ॥ नानक विणु नावै निरभउ को नही जिचरु सबदि न करे वीचारु ॥१॥
मः ३ ॥
भेखी अगनि न बुझई चिंता है मन माहि ॥ वरमी मारी सापु ना मरै तिउ निगुरे करम कमाहि ॥ सतिगुरु दाता सेवीऐ सबदु वसै मनि आइ ॥ मनु तनु सीतलु सांति होइ त्रिसना अगनि बुझाइ ॥ सुखा सिरि सदा सुखु होइ जा विचहु आपु गवाइ ॥ गुरमुखि उदासी सो करे जि सचि रहै लिव लाइ ॥ चिंता मूलि न होवई हरि नामि रजा आघाइ ॥ नानक नाम बिना नह छूटीऐ हउमै पचहि पचाइ ॥२॥
(गुरू रामदास जी / राग वडहंसु / वडहंस की वार (म: ४))
पउड़ी ॥
जिनी हरि हरि नामु धिआइआ तिनी पाइअड़े सरब सुखा ॥ सभु जनमु तिना का सफलु है जिन हरि के नाम की मनि लागी भुखा ॥ जिनी गुर कै बचनि आराधिआ तिन विसरि गए सभि दुखा ॥ ते संत भले गुरसिख है जिन नाही चिंत पराई चुखा ॥ धनु धंनु तिना का गुरू है जिसु अम्रित फल हरि लागे मुखा ॥६॥(अर्थ)
(अंग 588 – गुरु ग्रंथ साहिब जी)
(गुरू अमरदास जी / राग वडहंसु / वडहंस की वार (म: ४))
श्लोक महला ३॥
तृष्णा में दग्ध होकर सारी दुनिया जल कर मर गई है और जल-जल कर पुकार कर रही है। यदि शांति प्रदान करने वाले सतिगुरु से भेंट हो जाए तो उसे फिर से दूसरी बार जलना नहीं पड़ेगा। हे नानक ! जब तक मनुष्य गुरु के शब्द पर विचार नहीं करता, तब तक परमात्मा के नाम के बिना कोई भी भय-रहित नहीं हो सकता ॥ १॥
महला ३॥

झूठा भेष अर्थात् ढोंग धारण करने से तृष्णा की अग्नि नहीं बुझती और मन में चिन्ता ही बनी रहती है। जैसे सर्प की बांबी को ध्वस्त करने से सर्प नहीं मरता वैसे ही निगुरा कर्म करता रहता है। दाता सतिगुरु की सेवा करने से मनुष्य के मन में शब्द का निवास हो जाता है। इससे मन-तन शीतल एवं शांति हो जाती है और तृष्णा की अग्नि बुझ जाती है। जब मनुष्य अपने हृदय से अहंकार को निकाल देता है तो उसे सर्व सुखों का परम सुख मिल जाता है। वही गुरुमुख मनुष्य त्यागी होता है जो अपनी वृति सत्य के साथ लगाता है। उसे बिल्कुल भी चिंता नहीं होती और हरि के नाम से वह तृप्त एवं संतुष्ट रहता है। हे नानक ! भगवान के नाम के बिना मनुष्य का छुटकारा नहीं होता और अहंकार के कारण वह बिल्कुल नष्ट हो जाता है॥ २॥
(गुरू रामदास जी / राग वडहंसु / वडहंस की वार (म: ४))
पउड़ी॥
जिन्होंने हरि के नाम का ध्यान किया है, उन लोगों को सर्व सुख प्राप्त हो गया है। उन लोगों का समूचा जीवन सफल है, जिनके मन में हरि के नाम की तीव्र लालसा लगी हुई है। जिन्होंने गुरु के वचन द्वारा हरि की आराधना की है, उनके सभी दुःख-क्लेश मिट गए हैं। वे सन्तजन, गुरु के शिष्य भले हैं, जिन्हें भगवान के अतिरिक्त किसी की भी तनिक चिन्ता नहीं। उनका गुरु धन्य-धन्य है, जिनके मुखारबिंद पर हरि के नाम का अमृत-फल लगा हुआ है॥ ६॥

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