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श्री दरबार साहिब अमृतसर से आज का हुकमनामा

Today Hukamnama

आसा महला ४ छंत ॥
वडा मेरा गोविंदु अगम अगोचरु आदि निरंजनु निरंकारु जीउ ॥ ता की गति कही न जाई अमिति वडिआई मेरा गोविंदु अलख अपार जीउ ॥ गोविंदु अलख अपारु अपर्मपरु आपु आपणा जाणै ॥ किआ इह जंत विचारे कहीअहि जो तुधु आखि वखाणै ॥ जिस नो नदरि करहि तूं अपणी सो गुरमुखि करे वीचारु जीउ ॥ वडा मेरा गोविंदु अगम अगोचरु आदि निरंजनु निरंकारु जीउ ॥१॥
तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता तेरा पारु न पाइआ जाइ जीउ ॥ तूं घट घट अंतरि सरब निरंतरि सभ महि रहिआ समाइ जीउ ॥ घट अंतरि पारब्रहमु परमेसरु ता का अंतु न पाइआ ॥ तिसु रूपु न रेख अदिसटु अगोचरु गुरमुखि अलखु लखाइआ ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती सहजे नामि समाइ जीउ ॥ तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता तेरा पारु न पाइआ जाइ जीउ ॥२॥
तूं सति परमेसरु सदा अबिनासी हरि हरि गुणी निधानु जीउ ॥ हरि हरि प्रभु एको अवरु न कोई तूं आपे पुरखु सुजानु जीउ ॥ पुरखु सुजानु तूं परधानु तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥ तेरा सबदु सभु तूंहै वरतहि तूं आपे करहि सु होई ॥ हरि सभ महि रविआ एको सोई गुरमुखि लखिआ हरि नामु जीउ ॥ तूं सति परमेसरु सदा अबिनासी हरि हरि गुणी निधानु जीउ ॥३॥
सभु तूंहै करता सभ तेरी वडिआई जिउ भावै तिवै चलाइ जीउ ॥ तुधु आपे भावै तिवै चलावहि सभ तेरै सबदि समाइ जीउ ॥ सभ सबदि समावै जां तुधु भावै तेरै सबदि वडिआई ॥ गुरमुखि बुधि पाईऐ आपु गवाईऐ सबदे रहिआ समाई ॥ तेरा सबदु अगोचरु गुरमुखि पाईऐ नानक नामि समाइ जीउ ॥ सभु तूंहै करता सभ तेरी वडिआई जिउ भावै तिवै चलाइ जीउ ॥४॥७॥१४॥(अर्थ)
आसा महला ४ छंत ॥
मेरा गोविन्द ही सबसे बड़ा है, वह अगम्य, अगोचर, जगत का आदि निरंजन निरंकार है। उसकी गति कही नहीं जा सकती, उसका प्रताप अपरिमित है, मेरा गोविन्द अलक्ष्य एवं अपार है। अलक्ष्य, अपार, अपरंपार गोविंद स्वयं ही अपने आपको जानता है। हे भगवान ! ये बेचारे जीव भी क्या विचार उच्चारण करें, जो तेरी व्याख्या एवं वर्णन कर सकें। जिस पर तू अपनी करुणा-दृष्टि करता है, वही गुरु द्वारा तेरे बारे में कुछ विचार करता है। मेरा गोविन्द ही सबसे बड़ा है, वह अगम्य, अगोचर, जगत का आदि, निरंजन निरंकार है॥ १॥
हे मालिक ! तू आदिपुरुष, अपरंपार एवं जगत का रचयिता है और तेरा पार पाया नहीं जा सकता। हे प्रभु ! तू कण-कण एवं प्रत्येक शरीर में निरंतर मौजूद है, तू सब में समाया रहता है। वह परब्रह्म-परमेश्वर प्रत्येक हृदय में विद्यमान है, जिसका अंत नहीं पाया जा सकता। उसका कोई रूप एवं रेखा नहीं, वह अदृष्ट एवं अगोचर है। गुरु ने जिस व्यक्ति को अलक्ष्य परमात्मा दिखा दिया है, वह दिन-रात सदा आनंदमय रहता है और सहज ही उसके नाम में समाया रहता है। हे मालिक ! तू आदिपुरुष, अपरंपार एवं जगत का रचयिता है और तेरा पार नहीं पाया जा सकता ॥ २॥
हे श्रीहरि ! तू सदैव सत्य परमेश्वर है एवं सदा अबिनाशी है, तू ही गुणों का भण्डार है। हे हरि-प्रभु ! सारे विश्व में एक तू ही है और तेरे समान अन्य कोई नहीं है, तू आप ही एक चतुर पुरुष है। हे चतुर पुरुष ! विश्व में तू ही प्रधान है और तेरे जैसा अन्य कोई बड़ा नहीं। हे प्रभु ! तेरा ही शब्द (हुक्म) सक्रिय है, तू सर्वव्यापक है, जो कुछ तू स्वयं करता है वही होता है। वह एक परमात्मा ही सबमें समाया हुआ है, गुरुमुख बनकर ही हरि का नाम जाना जाता है। हे भगवान ! तू सदैव सत्य परमेश्वर है जो सदा अबिनाशी है, एक तू ही गुणों का भण्डार है॥ ३॥
हे दुनिया बनाने वाले ! हर जगह तू ही है, संसार में चारों ओर तेरा ही प्रताप है, जैसे तुझे भाता है, वैसे ही दुनिया को चलाते हो। जैसे तुम्हें स्वयं पसंद है, वैसे ही तुम सृष्टि को चलाते हो, सभी जीव तेरे शब्द में ही समाए हुए हैं। यदि तुझे अच्छा लग जाए तो सभी तेरे शब्द में समा जाते हैं, मनुष्य तेरे शब्द द्वारा ही बड़ाई पा लेता है। गुरुमुख बनकर ही मनुष्य बुद्धि प्राप्त करता है और अपना अहंकार मिटा कर प्रभु में समाया रहता है। हे प्रभु ! गुरुमुख बनकर ही तेरा अगोचर शब्द प्राप्त होता है, हे नानक ! मनुष्य नाम में समाया रहता है। हे विश्व को पैदा करने वाले ! सृष्टि में चारों ओर तेरा ही प्रताप है, जैसे तुझे मंजूर है, वैसे ही तू सृष्टि को चलाता है॥ ४॥ ७॥ १४॥

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