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गोंड ॥
खसमु मरै तउ नारि न रोवै ॥ उसु रखवारा अउरो होवै ॥ रखवारे का होइ बिनास ॥ आगै नरकु ईहा भोग बिलास ॥१॥
एक सुहागनि जगत पिआरी ॥ सगले जीअ जंत की नारी ॥१॥ रहाउ ॥
सोहागनि गलि सोहै हारु ॥ संत कउ बिखु बिगसै संसारु ॥ करि सीगारु बहै पखिआरी ॥ संत की ठिठकी फिरै बिचारी ॥२॥
संत भागि ओह पाछै परै ॥ गुर परसादी मारहु डरै ॥ साकत की ओह पिंड पराइणि ॥ हम कउ द्रिसटि परै त्रखि डाइणि ॥३॥
हम तिस का बहु जानिआ भेउ ॥ जब हूए क्रिपाल मिले गुरदेउ ॥ कहु कबीर अब बाहरि परी ॥ संसारै कै अंचलि लरी ॥४॥४॥७॥(अर्थ)
(अंग 871 – गुरु ग्रंथ साहिब जी)
(भक्त कबीर जी / राग गोंड / -)
गोंड ॥
जब माया रूपी नारी का स्वामी मर जाता है तो वह रोती नहीं, क्योंकि उसका रखवाला कोई अन्य बन जाता है। जब उस रखवाले का नाश हो जाता है तो इहलोक में भोग-विलास करने वाला आगे परलोक में नरक ही भोगता है। १॥
एक माया रूपी सुहागिन सारे जगत् की प्यारी बनी हुई है और यह सब जीवों की नारी है। १॥ रहाउ॥
माया रूपी सुहागिन के गले में पड़ा हुआ विकारों का हार पड़ा है। संतों को यह विष के समान बुरी नजर आती है। यह माया रुपी नारी वेश्या की तरह श्रृंगार लगाकर बैठती है, परन्तु संतों द्वारा ठुकराई होने के कारण यह बेचारी भटकती ही रहती है।२॥
यह भागकर संतों के पीछे पड़ी रहती है लेकिन गुरु-कृपा से मार से डरती भी है। शाक्त जीवों का पोषण करने वाली यह प्राणप्रिया है। परन्तु मुझे तो यह रक्त पियासु डायन लगती है। ॥ ३ ॥
मैंने इसका सारा भेद जान लिया,” जब कृपालु होकर गुरुदेव मिल गए। कबीर जी कहते हैं कि अब यह माया मेरे मन में से बाहर निकल गई है और संसार के आंचल में जा लगी है ॥४॥४॥७॥
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