Today Hukamnama
धनासरी महला ५ ॥
जतन करै मानुख डहकावै ओहु अंतरजामी जानै ॥ पाप करे करि मूकरि पावै भेख करै निरबानै ॥१॥
जानत दूरि तुमहि प्रभ नेरि ॥ उत ताकै उत ते उत पेखै आवै लोभी फेरि ॥ रहाउ ॥
जब लगु तुटै नाही मन भरमा तब लगु मुकतु न कोई ॥ कहु नानक दइआल सुआमी संतु भगतु जनु सोई ॥२॥५॥३६॥(अर्थ)
धनासरी महला ५ ॥
लोभी आदमी अनेक प्रयास करता है एवं अन्य लोगों से बड़ा छल-कपट करता है परन्तु अन्तर्यामी ईश्वर सबकुछ जानता है। आदमी त्यागी साधुओं वाला भेष बनाकर रखता है। लेकिन फिर भी वह बहुत पाप करता रहता है परन्तु पाप करके भी मुकरता रहता है॥ १॥
हे प्रभु ! तू सब जीवों के निकट ही रहता है, परन्तु वह तुझे कहीं दूर ही समझते हैं। लोभी आदमी इधर-उधर झांकता है, फिर इधर-उधर देखता है और धन-दौलत के चक्र में ही फेंसा रहता है।॥ रहाउ ॥
जब तक मनुष्य के मन का भ्रम नाश नहीं होता, तब तक कोई भी माया के बन्धनों से मुक्त नहीं होता। हे नानक ! जिस पर सृष्टि का स्वामी भगवान दयालु हो जाता है, वास्तव में वही संत एवं वही भक्त है॥ २॥ ५ ॥ ३६॥
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