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श्री दरबार साहिब से आज का हुकमनामा

Today Hukamnama

आसा छंत महला ५ घरु ४
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
हरि चरन कमल मनु बेधिआ किछु आन न मीठा राम राजे ॥ मिलि संतसंगति आराधिआ हरि घटि घटे डीठा राम राजे ॥ हरि घटि घटे डीठा अम्रितो वूठा जनम मरन दुख नाठे ॥ गुण निधि गाइआ* सभ दूख मिटाइआ हउमै बिनसी गाठे ॥ प्रिउ सहज सुभाई छोडि न जाई मनि लागा रंगु मजीठा ॥ हरि नानक बेधे चरन कमल किछु आन न मीठा ॥१॥
जिउ राती जलि माछुली तिउ राम रसि माते राम राजे ॥ गुर पूरै उपदेसिआ जीवन गति भाते राम राजे ॥ जीवन गति सुआमी अंतरजामी आपि लीए लड़ि लाए ॥ हरि रतन पदारथो परगटो पूरनो छोडि न कतहू जाए ॥ प्रभु सुघरु सरूपु सुजानु सुआमी ता की मिटै न दाते ॥ जल संगि राती माछुली नानक हरि माते ॥२॥
चात्रिकु जाचै बूंद जिउ हरि प्रान अधारा राम राजे ॥ मालु खजीना सुत भ्रात मीत सभहूं ते पिआरा राम राजे ॥ सभहूं ते पिआरा पुरखु निरारा ता की गति नही जाणीऐ ॥ हरि सासि गिरासि न बिसरै कबहूं गुर सबदी रंगु माणीऐ ॥ प्रभु पुरखु जगजीवनो संत रसु पीवनो जपि भरम मोह दुख डारा ॥ चात्रिकु जाचै बूंद जिउ नानक हरि पिआरा ॥३॥
मिले नराइण आपणे मानोरथो पूरा राम राजे ॥ ढाठी भीति भरम की भेटत गुरु सूरा राम राजे ॥ पूरन गुर पाए पुरबि लिखाए सभ निधि दीन दइआला ॥ आदि मधि अंति प्रभु सोई सुंदर गुर गोपाला ॥ सूख सहज आनंद घनेरे पतित पावन साधू धूरा ॥ हरि मिले नराइण नानका मानोरथो पूरा ॥४॥१॥३॥

(अर्थ)

आसा छंत महला ५ घरु ४
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
मेरा मन हरि के चरण-कमलों में बिंध गया है, इसलिए प्रभु के अलावा मुझे अन्य कुछ भी मीठा (अच्छा) नहीं लगता। संतों की संगति में मिलकर मैंने हरि की आराधना की है और सबके हृदय में प्रभु के दर्शन करता हूँ। मैं हरि को प्रत्येक हृदय में देखता हूँ और उसका नामामृत मुझ पर बरस गया है तथा जन्म-मरण का दु:ख मिट गया है। गुणों के भण्डार परमात्मा का गुणगान करने से मेरे सभी दु:ख नाश हो गए हैं और मेरी अहंत्व की गांठ खुल गई है। मेरा प्रिय प्रभु अपने सहज-स्वभाव से मुझे छोड़कर कहीं नहीं जाता। मेरे मन को मजीठ की भाँति प्रभु का गहरा रंग लग गया है। हे नानक ! हरि के चरण-कमलों ने मेरा मन बिंध दिया है और उसे अन्य कुछ भी अच्छा नहीं लगता ॥ १ ॥
जैसे मछली जल में मस्त रहती है, वैसे ही मैं राम रस से मस्त हुआ हूँ। पूर्ण गुरु ने मुझे उपदेश दिया है और मैं राम से प्रेम करता हूँ जिसने मुझे जीवन-मुक्ति की देन प्रदान की है। जिन मनुष्यों को अंतर्यामी स्वामी अपने दामन के साथ लगा लेता है, वे जीवन में मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं। हरि अपना रत्न जैसा अमूल्य नाम अपने भक्तों के हृदय में प्रगट कर देता है। वह सब जीवों में समाया हुआ है और अपने भक्तों को छोड़कर कहीं नहीं जाता। जगत का स्वामी प्रभु सुन्दर स्वरूप एवं बुद्धिमान है, उसकी देन कभी समाप्त नहीं होती। हे नानक ! जैसे मछली जल में लीन हुई है वैसे ही मैं प्रभु में समाया हुआ हूँ॥ २॥
जैसे चातक स्वाति-बूंद की लालसा करता है वैसे ही हरि मेरे प्राणों का आधार है। प्रभु मुझे धन-भण्डार, पुत्र, भाई एवं मित्र सबसे प्रिय है। सबसे प्यारा एवं निराला आदिपुरुष मुझे सबसे प्रिय लगता है। उसकी गति कोई भी मनुष्य जान नहीं सकता। प्रत्येक श्वास एवं ग्रास भर के लिए भी मैं हरि को विस्मृत नहीं करता। गुरु के शब्द द्वारा मैं उसके प्रेम का आनंद प्राप्त करता हूँ। परमपुरुष प्रभु जगत का जीवन है। संतजन हरि-रस का पान करते हैं और उसका सुमिरन करके अपना भ्रम, मोह एवं दुःख दूर कर लेते हैं। जैसे चातक स्वाति-बूंद की अभिलाषा करता है वैसे ही नानक को हरि प्यारा लगता है॥ ३॥
अपने नारायण से मिलकर मेरे मनोरथ पूरे हो गए हैं। शूरवीर गुरु को मिलने से भ्रम की दीवार ध्वस्त हो गई है। पूर्ण गुरु उन्हें ही मिला है, जिन्होंने अपने पूर्व जन्म के कर्मो अनुसार अपनी तकदीर में सर्व निधियाँ देने वाले दीन दयालु परमात्मा से शुभ लेख लिखाए हैं। सुन्दर गुरु गोपाल प्रभु ही सृष्टि के आदि, मध्य एवं अन्त तक विद्यमान है। साधुओं की चरण-धूलि पतितों को पावन कर देती है और बड़ा सुख एवं सहज आनंद प्रदान करती है। नानक को नारायण मिल गया है और उसका मनोरथ पूरा हो गया है॥ ४॥ १॥ ३॥


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