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श्री दरबार साहिब से आज का हुकमनामा

Today Hukamnama

सलोकु मः ३ ॥
भगत जना कंउ आपि तुठा मेरा पिआरा आपे लइअनु जन लाइ ॥ पातिसाही भगत जना कउ दितीअनु सिरि छतु सचा हरि बणाइ ॥ सदा सुखीए निरमले सतिगुर की कार कमाइ ॥ राजे ओइ न आखीअहि भिड़ि मरहि फिरि जूनी पाहि ॥ नानक विणु नावै नकीं वढीं फिरहि सोभा मूलि न पाहि ॥१॥
मः ३ ॥
सुणि सिखिऐ सादु न आइओ जिचरु गुरमुखि सबदि न लागै ॥ सतिगुरि सेविऐ नामु मनि वसै विचहु भ्रमु भउ भागै ॥ जेहा सतिगुर नो जाणै तेहो होवै ता सचि नामि लिव लागै ॥ नानक नामि मिलै वडिआई हरि दरि सोहनि आगै ॥२॥
(गुरू रामदास जी / राग वडहंसु / वडहंस की वार (म: ४))
पउड़ी ॥
गुरसिखां मनि हरि प्रीति है गुरु पूजण आवहि ॥ हरि नामु वणंजहि रंग सिउ लाहा हरि नामु लै जावहि ॥ गुरसिखा के मुख उजले हरि दरगह भावहि ॥ गुरु सतिगुरु बोहलु हरि नाम का वडभागी सिख गुण सांझ करावहि ॥ तिना गुरसिखा कंउ हउ वारिआ जो बहदिआ उठदिआ हरि नामु धिआवहि ॥११॥

(अर्थ)
(अंग 590 – गुरु ग्रंथ साहिब जी)
(गुरू अमरदास जी / राग वडहंसु / वडहंस की वार (म: ४))
श्लोक महला ३॥
मेरा प्यारा परमेश्वर भक्तजनों पर स्वयं प्रसन्न हुआ है और अपने भक्तों को उसने स्वयं ही भक्ति में लगा लिया है। अपने भक्तजनों का उसने साम्राज्य प्रदान किया है और उनके सिर हेतु उसने सच्चा मुकुट बनाया है। वे सर्वदा सुखी एवं निर्मल हैं और सतिगुरु की सेवा करते हैं। वे राजा नहीं कहे जा सकते, जो आपस में भिड़कर मर जाते हैं और तत्पश्चात् पुनः योनियों के चक्र में ही पड़े रहते हैं। हे नानक ! भगवान के नाम के बिना वे नकटा अर्थात् तिरस्कृत होकर घूमते रहते हैं तथा बिल्कुल ही शोभा प्राप्त नहीं करते॥ १॥
महला ३॥
“(शब्द को) सुनने एवं निर्देश देने से मनुष्य को इसका स्वाद नहीं आता, जब तक वह गुरुमुख बनकर शब्द में मग्न नहीं होता। गुरु की सेवा करने से भगवान का नाम जीव के मन में निवास कर लेता है और भ्रम एवं खौफ उसके भीतर से भाग जाते हैं। जीवं जैसा गुरु को जानता है, वह भी वैसे ही हो जाता है और तब उसकी सुरति सत्य-नाम से लग जाती है। हे नानक ! नाम के फलस्वरूप ही जीव को कीर्ति प्राप्त होती है और आगे भगवान के दरबार में भी शोभायमान होता है ॥ २ ॥
(गुरू रामदास जी / राग वडहंसु / वडहंस की वार (म: ४))
पउड़ी॥
गुरु के शिष्यों के मन में भगवान की प्रीति है और वे आकर गुरु की पूजा करते हैं। वे हरि-नाम का बड़े प्रेम से व्यापार करते हैं और हरि-नाम का लाभ अर्जित करके चले जाते हैं। गुरु के शिष्यों के मुख हमेशा उज्ज्वल हैं और वे भगवान के दरबार में सत्कृत होते हैं। गुरु-सतगुरु भगवान के नाम का अमूल्य भण्डार है और भाग्यशाली गुरु के शिष्य इस गुणों के भण्डार में उनके भागीदार बन जाते हैं। मैं गुरु के उन शिष्यों पर न्यौछावर हूँ, जो बैठते-उठते समय सदा हरि-नाम का ध्यान करते रहते हैं।॥ ११॥

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