Today Hukamnama
बिलावलु महला ४ ॥
अंतरि पिआस उठी प्रभ केरी सुणि गुर बचन मनि तीर लगईआ ॥ मन की बिरथा मन ही जाणै अवरु कि जाणै को पीर परईआ ॥१॥
राम गुरि मोहनि मोहि मनु लईआ ॥ हउ आकल बिकल भई गुर देखे हउ लोट पोट होइ पईआ ॥१॥ रहाउ ॥
हउ निरखत फिरउ सभि देस दिसंतर मै प्रभ देखन को बहुतु मनि चईआ ॥ मनु तनु काटि देउ गुर आगै जिनि हरि प्रभ मारगु पंथु दिखईआ ॥२॥
कोई आणि सदेसा देइ प्रभ केरा रिद अंतरि मनि तनि मीठ लगईआ ॥ मसतकु काटि देउ चरणा तलि जो हरि प्रभु मेले मेलि मिलईआ ॥३॥
चलु चलु सखी हम प्रभु परबोधह गुण कामण करि हरि प्रभु लहीआ ॥ भगति वछलु उआ को नामु कहीअतु है सरणि प्रभू तिसु पाछै पईआ ॥४॥
खिमा सीगार करे प्रभ खुसीआ मनि दीपक गुर गिआनु बलईआ ॥ रसि रसि भोग करे प्रभु मेरा हम तिसु आगै जीउ कटि कटि पईआ ॥५॥
हरि हरि हारु कंठि है बनिआ मनु मोतीचूरु वड गहन गहनईआ ॥ हरि हरि सरधा सेज विछाई प्रभु छोडि न सकै बहुतु मनि भईआ ॥६॥
कहै प्रभु अवरु अवरु किछु कीजै सभु बादि सीगारु फोकट फोकटईआ ॥ कीओ सीगारु मिलण कै ताई प्रभु लीओ सुहागनि थूक मुखि पईआ ॥७॥
हम चेरी तू अगम गुसाई किआ हम करह तेरै वसि पईआ ॥ दइआ दीन करहु रखि लेवहु नानक हरि गुर सरणि समईआ ॥८॥५॥८॥
अर्थ
बिलावलु महला ४ ॥
गुरु के वचन को सुनकर मन में ऐसा तीर लगा कि अन्तर्मन में प्रभु-मिलन की तीव्र लालसा पैदा हो गई। मन की व्यथा मन ही जानता है, अन्य कोई पराई पीड़ा को क्या जान सकता है॥ १॥
प्यारे गुरु ने मेरा मन मोह लिया है। मैं बहुत व्याकुल थी, पर गुरु को देखकर प्रसन्न हो गई हूँ॥ १॥ रहाउ॥
में देश-विदेश सब जगह देखती रहती हूँ और मेरे मन में प्रभु-दर्शन का बड़ा चाव है। मैं अपना तन-मन काट कर गुरु के समक्ष भेंट कर दूँगी, जिसने मुझे प्रभु का मार्ग दिखाया है॥ २ ॥
जो कोई प्रभु का संदेश आकर मुझे देता है, वह मेरे हृदय, अन्तर, मन-तन को बड़ा मीठा लगता है। मैं अपना सिर काटकर उसके चरणों में रख दूँगी, जो मुझे हरि-प्रभु से मिला दे॥ ३॥
हे सखी ! चलो, हम प्रभु को समझ लें और अपने शुभ-गुणों के टोने करके प्रभु को पा लें। उसका नाम भक्तवत्सल कहा जाता है, इसलिए प्रभु की शरण में बने रहें ॥ ४॥
जो जीव-स्त्री क्षमा का श्रृंगार करती है तथा मन रूपी दीपक में गुरु का ज्ञान प्रज्वलित करती है, प्रभु उस पर बड़ा खुश होता है। मेरा प्रभु बड़े आनंद से उस जीव-स्त्री से भोग करता है, हम उसके आगे अपना जीवन काट-काट कर रख देंगे।॥ ५॥
हरि नाम मेरे गले का हार बन गया है और मेरा मन सिर का बड़ा आभूषण मोतीचूर बन चुका है। मैंने हरि के लिए अपने ह्रदय में श्रद्धा की सेज बिछा दी है और मन में प्रभु बड़ा प्यारा लगता है, जो मुझे छोड़ नहीं सकेगा ॥ ६॥
यदि प्रभु कुछ अन्य कहता रहे और जीव-स्त्री कुछ अन्य ही करती रहे तो उसका किया सारा श्रृंगार व्यर्थ हो जाता है। जिसने प्रभु-मिलन के लिए शुभ-गुणों का श्रृंगार किया है, उसने उसे सुहागिन बना लिया है। लेकिन जिस जीव-स्त्री ने परमात्मा का हुक्म नहीं माना, उसका तिरस्कार ही हुआ है॥ ७॥
हे ईश्वर ! तू अगम्य स्वामी है, में तेरी सेविका हूँ, मैं क्या कर सकती हूँ? मैं तो तेरे ही वश में पड़ी हूँ। नानक प्रार्थना करता है कि हे हरि ! मुझ दीन पर दया करो, मेरी लाज रख लो, क्योंकि मै तेरी ही शरण में हूँ॥ ८॥ ५ ॥ ८॥
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