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श्री दरबार साहिब से आज का हुकमनामा

Today Hukamnama

गूजरी महला १ ॥
नाभि कमल ते ब्रहमा उपजे बेद पड़हि मुखि कंठि सवारि ॥ ता को अंतु न जाई लखणा आवत जात रहै गुबारि ॥१॥
प्रीतम किउ बिसरहि मेरे प्राण अधार ॥ जा की भगति करहि जन पूरे मुनि जन सेवहि गुर वीचारि ॥१॥ रहाउ ॥
रवि ससि दीपक जा के त्रिभवणि एका जोति मुरारि ॥ गुरमुखि होइ सु अहिनिसि निरमलु मनमुखि रैणि अंधारि ॥२॥
सिध समाधि करहि नित झगरा दुहु लोचन किआ हेरै ॥ अंतरि जोति सबदु धुनि जागै सतिगुरु झगरु निबेरै ॥३॥
सुरि नर नाथ बेअंत अजोनी साचै महलि अपारा ॥ नानक सहजि मिले जगजीवन नदरि करहु निसतारा ॥४॥२॥

(अर्थ)
गूजरी महला १ ॥
विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्मा उत्पन्न हुआ और अपने चारों मुख एवं कण्ठ को संवारकर वेदों का अध्ययन करने लगा। लेकिन ब्रह्मा भी ईश्वर का अन्त नहीं जान सका तथा आवागमन के अन्धेरे में पड़ा रहा ॥ १॥
मैं अपने प्रियतम-प्रभु को क्यों विस्मृत करूँ ? जो कि मेरे प्राणों का आधार है। जिसकी भक्ति पूर्ण पुरुष भी करते हैं और मुनिजन भी गुरु के उपदेशानुसार सेवा-भक्ति करते हैं।॥ १॥ रहाउ॥
दुनिया में रोशनी करने के लिए सूर्य एवं चन्द्रमा उसके दीपक हैं, तीनों लोकों में एक उसी मुरारि की ज्योति प्रज्वलित हो रही है। गुरुमुख मनुष्य रात-दिन मन में निर्मल रहता है तथा मनमुख लोग रात के अन्धेरे में भटकते रहते हैं।॥ २॥
सिद्ध पुरुष अपनी समाधि में सदैव अपने साथ ही झगड़ा करता हुआ प्रभु की खोज करते रहते हैं। परन्तु अपने दोनों नयनों से वह क्या देख सकते हैं। जिसके हृदय में प्रभु ज्योति विद्यमान है। वह शब्द की ध्वनि से जाग जाता है और सच्चा गुरु उसके विवाद निपटा देता है॥ ३॥
हे अनंत, अयोनि प्रभु ! तुम देवताओं एवं मनुष्यों के नाथ हो, तुम्हारा सच्चा मन्दिर अपार है। हे जगजीवन प्रभु ! नानक को सहजता प्रदान कर तथा अपनी दया-दृष्टि से उसका उद्धार कर दो ॥ ४॥ २॥

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