Today Hukamnama
धनासरी महला ५ ॥
वडे वडे राजन अरु भूमन ता की त्रिसन न बूझी ॥ लपटि रहे माइआ रंग माते लोचन कछू न सूझी ॥१॥
बिखिआ महि किन ही त्रिपति न पाई ॥ जिउ पावकु ईधनि नही ध्रापै बिनु हरि कहा अघाई ॥ रहाउ ॥
दिनु दिनु करत भोजन बहु बिंजन ता की मिटै न भूखा ॥ उदमु करै सुआन की निआई चारे कुंटा घोखा ॥२॥
कामवंत कामी बहु नारी पर ग्रिह जोह न चूकै ॥ दिन प्रति करै करै पछुतापै सोग लोभ महि सूकै ॥३॥
हरि हरि नामु अपार अमोला अम्रितु एकु निधाना ॥ सूखु सहजु आनंदु संतन कै नानक गुर ते जाना ॥४॥६॥(अर्थ)
(अंग 672 – गुरु ग्रंथ साहिब जी)
(गुरू अर्जन देव जी / राग धनासरी / -)
धनासरी मः ५ ॥
जगत में बड़े-बड़े राजा एवं भूमिपति हुए हैं, परन्तु उनकी तृष्णाग्नि नहीं बुझी। वे माया के मोह में मस्त हुए उससे लिपटे रहे हैं और उन्हें अपनी आँखों से माया के सिवाय अन्य कुछ दिखाई नहीं दिया॥१॥
विष रूपी माया में किसी को तृप्ति प्राप्त नहीं हुई। जैसे अग्नि ईंधन से तृप्त नहीं होती, वैसे ही भगवान के बिना मन कैसे तृप्त हो सकता है? Iरहाउ॥
मनुष्य प्रतिदिन अनेक प्रकार के स्वादिष्ट भोजन एवं व्यंजन खाता रहता है, परन्तु उसकी खाने की भूख नहीं मिटती। वह कुते की तरह प्रयास करता रहता है और चारों दिशाओं में माया की खोज करता रहता है॥ २॥
कामासक्त हुआ कामुक मनुष्य अनेक नारियों से भोग-विलास करता है परन्तु फिर भी उसका पराए घरों की नारियों की ओर देखना खत्म नहीं होता। वह नित्य-प्रतिदिन पाप कर करके पछताता है और शोक एवं लोभ में सूखता जाता है॥३ ॥
परमात्मा का नाम बड़ा अपार-अनमोल है और यह एक अमृत रूपी खजाना है। हे नानक ! मैंने यह भेद गुरु से समझ लिया है कि नामामृत से संतजनों के हृदय में सहज सुख एवं आनंद बना रहता है।॥ ४॥ ६॥
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