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सोरठि महला ५ घरु ३ चउपदे
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
मिलि पंचहु नही सहसा चुकाइआ ॥ सिकदारहु नह पतीआइआ ॥ उमरावहु आगै झेरा ॥ मिलि राजन राम निबेरा ॥१॥
अब ढूढन कतहु न जाई ॥ गोबिद भेटे गुर गोसाई ॥ रहाउ ॥
आइआ प्रभ दरबारा ॥ ता सगली मिटी पूकारा ॥ लबधि आपणी पाई ॥ ता कत आवै कत जाई ॥२॥
तह साच निआइ निबेरा ॥ ऊहा सम ठाकुरु सम चेरा ॥ अंतरजामी जानै ॥ बिनु बोलत आपि पछानै ॥३॥
सरब थान को राजा ॥ तह अनहद सबद अगाजा ॥ तिसु पहि किआ चतुराई ॥ मिलु नानक आपु गवाई ॥४॥१॥५१॥(अर्थ)
(अंग 621 – गुरु ग्रंथ साहिब जी)
(गुरू अर्जन देव जी / राग सोरठि / -)
सोरठि महला ५ घरु ३ चउपदे
ईश्वर एक है, जिसे सतगुरु की कृपा से पाया जा सकता है।
पंचों से मिलकर मेरा संशय दूर नहीं हुआ और चौधरियों से भी मेरी संतुष्टि नहीं हुई। मैंने अपना झगड़ा अमीरों-वजीरों के समक्ष भी रखा लेकिन जगत के राजन राम से मिलकर ही मेरा झगड़े का निपटारा हुआ है॥ १॥
अब मैं इधर-उधर ढूँढने के लिए नहीं जाता चूंकि सृष्टि का स्वामी गुरु-परमेश्वर मुझे मिल गया है॥ रहाउ॥
जब मैं प्रभु के दरबार में आया तो मेरे मन की फरियाद मिट गई। जो मेरी तकदीर में था, वह सब मुझे मिल गया है और अब मैंने कहाँ आना एवं कहाँ जाना है ? ॥ २॥
वहाँ सत्य के न्यायालय में सच्चा न्याय होता है। प्रभु के दरबार में तो जैसा मालिक है, वैसा ही नौकर है। अंतर्यामी प्रभु सर्वज्ञाता है और मनुष्य के कुछ बोले बिना ही वह स्वयं ही मनोरथ को पहचान लेता है।३॥
वह सब स्थानों का राजा है, वहाँ अनहद शब्द गूंजता रहता है। उसके साथ क्या चतुराई की जा सकती है ? हे नानक ! अपने अहंकार को दूर करके प्रभु से मिलन करो।॥ ४॥ १॥ ५१॥
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