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सलोकु मः ४ ॥
अंतरि अगिआनु भई मति मधिम सतिगुर की परतीति नाही ॥ अंदरि कपटु सभु कपटो करि जाणै कपटे खपहि खपाही ॥ सतिगुर का भाणा चिति न आवै आपणै सुआइ फिराही ॥ किरपा करे जे आपणी ता नानक सबदि समाही ॥१॥
मः ४ ॥
मनमुख माइआ मोहि विआपे दूजै भाइ मनूआ थिरु नाहि ॥ अनदिनु जलत रहहि दिनु राती हउमै खपहि खपाहि ॥ अंतरि लोभु महा गुबारा तिन कै निकटि न कोई जाहि ॥ ओइ आपि दुखी सुखु कबहू न पावहि जनमि मरहि मरि जाहि ॥ नानक बखसि लए प्रभु साचा जि गुर चरनी चितु लाहि ॥२॥
पउड़ी ॥
संत भगत परवाणु जो प्रभि भाइआ ॥ सेई बिचखण जंत जिनी हरि धिआइआ ॥ अम्रितु नामु निधानु भोजनु खाइआ ॥ संत जना की धूरि मसतकि* लाइआ ॥ नानक भए पुनीत हरि तीरथि नाइआ ॥२६॥
(अर्थ)
(अंग 652 – गुरु ग्रंथ साहिब जी)
(गुरू रामदास जी / राग सोरठि / सोरठि की वार (म: ४))
श्लोक महला ४॥
जिस जीव के मन में अज्ञान है उसकी तो बुद्धि ही भ्रष्ट हो गई है, उसे सतगुरु के प्रति कोई आस्था नहीं। जिसके मन में छल-कपट ही है, वह सबको कपटी ही समझता है और इस छल-कपट के कारण वह तबाह हो जाता है। उसके मन में गुरु की रज़ा प्रविष्ट नहीं होती और वह तो अपने स्वार्थ के लिए ही भटकता रहता है। हे नानक ! यदि ईश्वर अपनी कृपा करे तो ही वह शब्द में समा जाता है।॥ १॥
महला ४॥
मनमुख जीव माया के मोह में ही फँसे रहते हैं और द्वैतभाव के कारण उनका मन स्थिर नहीं होता। वे तो दिन-रात तृष्णाग्नि में जलते रहते हैं और अहंकार में बिल्कुल नष्ट हो जाते हैं (एवं दूसरों को भी नष्ट कर देते हैं)। इनके मन में लोभ का घोर अन्धेरा है और कोई भी उनके निकट नहीं आता। वे आप दुःखी रहते हैं और कभी भी उन्हें सुख की प्राप्ति नहीं होती। वे मर जाते हैं और जन्मते-मरते ही रहते हैं। हे नानक ! जो अपना चित गुरु के चरणों में लगाते हैं, सच्चा प्रभु उन्हें क्षमा कर देता है॥ २॥
पउड़ी॥
जो प्रभु को अच्छा लगता है, वही संत एवं भक्त परवान हैं। जिसने भगवान का ध्यान किया है, वही पुरुष चतुर है। वह अमृत नाम का भोजन ग्रहण करता है, जो सर्व गुणों का भण्ड़ार है। वह तो संतजनों की चरण-धूलि ही अपने माथे पर लगाता है। हे नानक ! जिन्होंने हरि-नाम रूपी तीर्थ में स्नान किया है, वे पवित्र पावन हो गए हैं॥२६॥
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