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HomeUncategorizedश्री दरबार साहिब से आज का हुकमनामा

श्री दरबार साहिब से आज का हुकमनामा

Today Hukamnama

गूजरी महला ५ ॥
जिसु मानुख पहि करउ बेनती सो अपनै दुखि भरिआ ॥ पारब्रहमु जिनि रिदै अराधिआ तिनि भउ सागरु तरिआ ॥१॥
गुर हरि बिनु को न ब्रिथा दुखु काटै ॥ प्रभु तजि अवर सेवकु जे होई है तितु मानु महतु जसु घाटै ॥१॥ रहाउ ॥
माइआ के सनबंध सैन साक कित ही कामि न आइआ ॥ हरि का दासु नीच कुलु ऊचा तिसु संगि मन बांछत फल पाइआ ॥२॥
लाख कोटि बिखिआ के बिंजन ता महि त्रिसन न बूझी ॥ सिमरत नामु कोटि उजीआरा बसतु अगोचर सूझी ॥३॥
फिरत फिरत तुम्हरै दुआरि आइआ भै भंजन हरि राइआ ॥ साध के चरन धूरि जनु बाछै सुखु नानक इहु पाइआ ॥४॥६॥७॥

(अर्थ)
(अंग 497 – गुरु ग्रंथ साहिब जी)
(गुरू अर्जन देव जी / राग गूजरी / -)
गूजरी महला ५ ॥
जिस मनुष्य के पास भी मैं (अपने दुःख की) विनती करता हूँ, वह पहले ही दु:खों से भरा मिलता है। जिस मनुष्य ने अपने हृदय में परब्रह्म की आराधना की है, वही भवसागर से पार हुआ है॥ १॥
गुरु-हरि के बिना दूसरा कोई भी व्यथा एवं दुःख को दूर नहीं कर सकता। यदि मनुष्य प्रभु को छोड़कर किसी दूसरे का सेवक बन जाए तो उसकी मान-प्रतिष्ठा, महत्ता एवं यश कम हो जाते हैं।॥ १॥ रहाउ ॥
सांसारिक संबंधी, रिश्तेदार एवं भाई-बन्धु किसी काम नहीं आते। नीच कुल का हरि का दास इन सबसे उत्तम है, उसकी संगति में मनोवांछित फल पाया है॥ २ ॥
मनुष्य के पास विषय-विकारों के लाखों-करोड़ों ही व्यंजन हों परन्तु उनमें से उसकी तृष्णा निवृत्त नहीं होती। नाम-सिमरन करने से मेरे मन में प्रभु-ज्योति का इतना उजाला हो गया है जितना करोड़ों सूर्य का उजाला होता है एवं मुझे अगोचर वस्तु की सूझ हो गई है अर्थात् प्रभु-दर्शन हो गए हैं।॥ ३॥
हे भयभंजन परमेश्वर ! मैं भटकता-भटकता तेरे द्वार पर आया हूँ। नानक का कथन है कि मैं साधुओं के चरणों की धूलि की ही कामना करता हूँ और मैंने यही सुख पाया है॥ ४॥ ६॥ ७॥

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