Today Hukamnama
सलोक ॥
राज कपटं रूप कपटं धन कपटं कुल गरबतह ॥ संचंति बिखिआ छलं छिद्रं नानक बिनु हरि संगि न चालते ॥१॥
पेखंदड़ो की भुलु तुमा दिसमु सोहणा ॥ अढु न लहंदड़ो मुलु नानक साथि न जुलई माइआ ॥२॥
पउड़ी ॥
चलदिआ नालि न चलै सो किउ संजीऐ ॥ तिस का कहु किआ जतनु जिस ते वंजीऐ ॥ हरि बिसरिऐ किउ त्रिपतावै ना मनु रंजीऐ ॥ प्रभू छोडि अन लागै नरकि समंजीऐ ॥ होहु क्रिपाल दइआल नानक भउ भंजीऐ ॥१०॥
(अर्थ)
(गुरू अर्जन देव जी / राग जैतसरी / जैतसरी की वार (म: ५))
श्लोक॥
मानव जीव अपने जीवन में जिस राज्य, सौन्दर्य, धन-दौलत एवं उच्च कुल का घमण्ड करता रहता है, दरअसल ये सभी प्रपंच मात्र छल-कपट ही हैं। वह बड़े छल-कपट एवं दोषों द्वारा विष रूपी धन संचित करता है। परन्तु हे नानक ! सत्य तो यही है कि परमात्मा के नाम-धन के सिवाय कुछ भी उसके साथ नहीं जाता॥ १॥
तूंबा देखने में बड़ा सुन्दर लगता है लेकिन मानव जीव इसे देखकर भूल में फंस जाता है। इस तूम्बे का एक कौड़ी मात्र भी मूल्य प्राप्त नहीं होता। हे नानक ! धन-दौलत जीव के साथ नहीं जाते ॥ २ ॥
पउड़ी ॥
गुरु साहिब का फुरमान है कि उस धन को हम क्यों संचित करें ? जो संसार से जाते समय हमारे साथ ही नहीं जाता। जिस धन को हमने इस दुनिया में ही छोड़कर चल देना है, बताओ, उसे प्राप्त करने के लिए हम क्यों प्रयास करें ? भगवान को भुलाकर मन कैसे तृप्त हो सकता है? यह मन भी प्रसन्न नहीं हो सकता। जो इन्सान प्रभु को छोड़करं सांसारिक प्रपंचों में लीन रहता है, आखिरकार वह नरक में ही बसेरा करता है। नानक प्रार्थना करता है कि हे दया के घर, परमेश्वर ! कृपालु होकर हमारा भय नष्ट कर दो ॥ १०॥
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