सुखबीर बादल फ़िर से बने अकाली दल के प्रधान

सुखबीर बादल फ़िर से बने अकाली दल के प्रधान

सुखबीर सिंह बादल एक बार फिर शिरोमणि अकाली दल (SAD) के प्रधान बन गए हैं। अमृतसर में गोल्डन टेंपल परिसर में बने तेजा सिंह समुद्री हॉल में पार्टी की बैठक में सर्वसम्मति के साथ इसका फैसला लिया गया। कार्यकारी प्रधान बलविंदर सिंह भूंदड़ ने इस दौरान उनके नाम को प्रपोज किया। इस चुनाव के लिए उनके खिलाफ किसी ने भी अपना नाम प्रोपोज नहीं किया। जिसके बाद सर्वसम्मति के साथ सुखबीर बादल को प्रधान चुन लिया गया।

सुखबीर बादल ने 16 नवंबर 2024 को पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया था, जब उन्हें अकाल तख्त द्वारा 'तनखैया' (धार्मिक दोषी) घोषित किया गया था। 2 दिसंबर 2025 को अकाल तख्त जत्थेदार ज्ञानी रघबीर सिंह ने सुखबीर समेत पूरी मौजूदा पार्टी नेतृत्व को "पार्टी चलाने के अयोग्य" बताया था।

इसके बाद, शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (SGPC) ने ज्ञानी रघबीर सिंह को उनके पद से हटा दिया और उनकी जगह जत्थेदार कुलदीप सिंह गड़गज को नियुक्त किया।

एसएडी प्रवक्ता दलजीत सिंह चीमा पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि पार्टी नेतृत्व पहले ही अकाल तख्त के निर्देशानुसार धार्मिक दंड भुगत चुका है। जब कोई धार्मिक सज़ा भुगत लेता है, तो वह पवित्र हो जाता है और पुरानी बातों को समाप्त माना जाता है।

अकाली दल के सीनियर नेताओं का मानना है कि अकाल तख्त का निर्देश अब भी प्रभावी है। अकाल तख्त ने स्पष्ट रूप से कहा था कि पार्टी को नया नेता चुनना चाहिए, क्योंकि मौजूदा नेतृत्व अयोग्य है।

शनिवार का चुनाव पंथक राजनीति के लिए एक नए अध्याय की शुरुआत मानी जा रही है। लेकिन अब अकाली दल के सामने कांग्रेस, आम आदमी पार्टी और भाजपा के अलावा दो बड़ी चुनौतियां खड़ी हैं।

- खडूर साहिब से सांसद और खालिस्तान समर्थक अमृतपाल सिंह पहले ही नया अकाली दल वारिस पंजाब दे के नाम से बना चुके हैं।

- अकाली दल के बागी नेता, जिन्होंने पहले अकाल दल रिफॉर्म कमेटी बनाई थी, उनकी अगली रणनीति को लेकर स्थिति स्पष्ट नहीं है। सूत्रों का मानना है कि वे या तो खुद को असल अकाली बताकर नेतृत्व का दावा कर सकते हैं या कोई नया राजनीतिक दल बना सकते हैं।

शिरोमणि अकाली दल अपना 105 साल का इतिहास अपने में संजोए बैठा है। इसकी स्थापना 14 दिसंबर 1920 को गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के सहयोग से हुई थी, जिसका उद्देश्य सिख समुदाय की धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक आवाज़ बनना था।

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1925 में गुरुद्वारा एक्ट लागू होने के बाद अकाली दल ने आजादी की लड़ाई में सक्रिय भाग लिया। "मैं मरां ते पंथ जिवे" की विचारधारा से प्रेरित होकर शुरुआती दौर में राजनीति से दूर रहा। 1937 के प्रोविंशियल चुनावों में 10 सीटें जीतकर दल ने राजनीतिक क्षेत्र में कदम रखा।

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देश के विभाजन के समय अकाली दल ने पुरजोर विरोध किया। फिरोजपुर और जीरा को पाकिस्तान में मिलाए जाने की खबर पर मास्टर तारा सिंह ने दिल्ली पहुंचकर वायसराय से यह निर्णय रुकवाया। संघर्षशील जीवन के बाद उनके पास मात्र 36 रुपए थे।