श्री दरबार साहिब से आज का हुकमनामा

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Today Hukamnama

सूही महला ५ ॥
धनु सोहागनि जो प्रभू पछानै ॥ मानै हुकमु तजै अभिमानै ॥ प्रिअ सिउ राती रलीआ मानै ॥१॥
सुनि सखीए प्रभ मिलण नीसानी ॥ मनु तनु अरपि तजि लाज लोकानी ॥१॥ रहाउ ॥
सखी सहेली कउ समझावै ॥ सोई कमावै जो प्रभ भावै ॥ सा सोहागणि अंकि समावै ॥२॥
गरबि गहेली महलु न पावै ॥ फिरि पछुतावै जब रैणि बिहावै ॥ करमहीणि मनमुखि दुखु पावै ॥३॥
बिनउ करी जे जाणा दूरि ॥ प्रभु अबिनासी रहिआ भरपूरि ॥ जनु नानकु गावै देखि हदूरि ॥४॥३॥

(अर्थ)
सूही महला ५ ॥
वह सुहागिन धन्य है, जो अपने पति-प्रभु को पहचानती है। वह अपने पति-प्रभु का हुक्म मानती है और अभिमान को त्याग देती है। यह अपने प्रिय के प्रेम में मग्न रहकर आनंद प्राप्त करती है॥ १॥
हे मेरी सखी ! प्रभु से मिलन की निशानी सुन। लोक-लाज छोड़कर अपना मन-तन प्रभु को अर्पण कर दे॥ १॥ रहाउ॥
सखी अपनी सहेली को समझाती है कि वह वही कार्य करे जो प्रभु को अच्छा लगे। फिर वह सुहागिन प्रभु-चरणों में समा जाती है। २ ।
अहंकार में फँसी जीव-स्त्री प्रभु को नहीं पा सकती। जब उसकी जीवन रूपी रात्रि बीत जाती है तो फिर वह पछतावा करती है। कर्महीन मनमुखी जीव-स्त्री बहुत दुख प्राप्त करती है॥ ३॥
मैं प्रभु के समक्ष तो ही विनती करूँ, यदि मैं उसे कहीं दूर समझें। वह अविनाशी प्रभु तो सर्वव्यापक है। नानक उसे अपने आसपास देखकर उसका ही गुणगान करता है॥ ४॥ ३॥

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